बारहवां अध्याय

 

विष्णु--विश्वव्यापी दे

 

ऋग्वेद, मण्डल 1, सूक्त 154

 

विष्योर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं य: पार्थिवानि विममे रजांसि ।

यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगाय: ।।1।।

 

( विष्णो: नु कं वीर्याणि प्रवोचम्) विष्णुके वीरतापूर्ण कर्मोका अब मैं वर्णन करता हूँ, ( य:) जिस विष्णुने  ( पार्थिवानि रजांसि) पार्थिव लोकोंको ( विममे) माप लिया है, और (य:) जो ( उरुगाय:) विश्व गतिवाला ( त्रेधा विचक्रमाण:) अपनी विश्वव्यापी गतिके तीन चरणोंको रखता हुआ ( उत्तरं सधस्थं) हमारी आत्म-साधनाके उच्चतर धामको ( अस्कभायत्) थामे हुए है ।।1।।

 

प्र तद् विष्णु: स्तवते वीर्येण मृगो न भीम: कुचरो गिरिष्ठा: ।

यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेषु अधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ।।2 ।।

 

( तद्) उसको ( विष्णु:) विष्णु (वीर्येण) अपनी शक्तिके द्वारा (प्र- स्तवते) उच्च स्थानपर स्थापित कर देता है, और वह  (भीम: कुचर: मृग: न) एक भयानक शेरके. समान है जो दुर्गम स्थानोंमें विचरता है, ( गिरिष्ठा:) उसकी गुफा पहाड़की चोटियोंपर है, ( यस्य) जिसकी ( त्रिषु उरुषु विक्रमणेषु) तीन विशाल गतियोंमें ( विश्वा भुवनानि अधिक्षियन्ति) सब लोक निवास पा लेते हैं ।।2।।

 

प्र विष्णवे शूषमेतु मन्म गिरिक्षित उरुगावाय वृष्णे ।

य इदं दीर्ध प्रयतं सधस्थम् एको विममे त्रिभिरित् पदेभि: ।।3।।  

 

( विष्णवे) सर्वव्यापी विष्णुके प्रति ( शूषम्) हमारी शक्ति और (मन्म) हमारा विचार ( प्र-एतु) आगे जाय, ( उरुगायाय वृष्णे गिरिक्षिते) जो विष्णु एक विशाल गतिवाला बैल है जिसका निवासस्थान पर्वतपर है, ( य: एक:) जिस अकेलेने (इदं दीर्ध प्रयतं सधस्थम्) हमारी आत्म-साधनाके इस लंबे और अत्यधिक विस्तृत धामको ( त्रिभि: इत् पदेभि:) केवल तीन ही चरणोमें (विममे) माप किया है ।।3।।

 

यस्य त्री पूर्णा मधुना पदानि अक्षीयमाणा स्वधया मदन्ति ।

थ उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वां ।।4।।


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(यस्य) जिस विष्णुके (त्री पदानि) तीन चरण (मधुना पूर्णा) मधु-रससे परिपूर्ण हैं और वे (अक्षीयमाणा) क्षीण नहीं होते, किंतु (स्वधया मदन्ति) अपने स्वभावकी आत्मसमस्वरता द्वारा आनंद उपलब्ध करते हैं; (य: उ) जो अर्थात् वह विष्णु (एक:) अकेला ही (त्रिधातु) त्रिविध तत्त्वको और (पृथिवीम् उत द्याम्) पृथिवी तथा द्यौको भी, (विश्वा भुवनानि) सभी लोकोंको (दाधार) धारण किये है ।।4।।

 

तदस्य प्रियमभि पाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति ।

उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णो: पदे परमे मध्व उत्स: ।।5।।

 

मैं चाहता हूँ कि (अस्य पाथ: तत् प्रियम्) उसकी गतिके उस लक्ष्यको, आनंदको, (अभि-अश्याम्) प्राप्त कर सकूं और उसमें रस ले सकूं (यत्र) जिसमें (देवयव: नर:) देवत्वकी इच्छुक आत्माएँ (मदन्ति) आनंद लेती हैं; (हि) क्योंकि (उरुक्रमस्य विष्णो:) विशाल गतिवाले विष्णुके (परमे पदे) सबसे ऊपरके चरणमें (स: इत्था बन्धु:) मनुष्योंका वह मित्र रहता है जो (मध्व: उत्स:) मधुरताका स्रोत है ।।5।।

 

ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास: ।

अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदभव भाति भूरि ।।6।।

 

(ता वां वास्तुनि) वे तुम दोनोंके निवास-स्थान हैं जिनकी (गमध्यै उश्मसि) हम अपनी यात्राके लक्ष्यके रूपमें पहुँचनेके लिये चाहना करते हैं, (-यत्र) जहाँ (भूरिश्वङ्गा गाव:) अनेक सींगोवाली प्रकाशकी गौएँ (अयास:) यात्रा करके पहुंचती हैं । (अत्र ह) यहीं (उरुगायस्य वृष्ण:) विशाल गतिवाले वृष्ण विष्णुका (परमं पदम्) सर्वोच्च चरण (भूरि) अपनी बहुविध विशालताके साथ (अव-भाति) नीचे इसे लोकमें हमपर चमकता है ।।6।।

 

 भाष्य

 

इस सूक्तका देवता विष्णु है । वह ऋग्वेदमें एक दूसरे देव रुद्रके साथ, जिसने बादके धर्म-संप्रदायमें एक बहुत ऊँचा स्थान पा लिया है, घनिष्ठ किंतु प्रच्छन्न संबंध और लगभग तादाम्त्य ही रखता है । रुद्र एक भयंकर और प्रचण्ड देव है जिसका एक हितकारी रूप भी हैं जो विष्णुकी उच्च आनदपूर्ण वस्तुसत्ताके निकट पहुँचता है । मनुष्यके साथ तथा मनुष्यके सहायक देवोंके साथ जो विष्णुकी सतत मित्रताका वर्णन आता हैं उसपर एक बड़ी जबर्दस्त प्रचंडताका रूप भी छाया हुआ है । विष्णुके विषयमें यह वर्णन कि ''वह कुत्सित तथा दुर्गम स्थानोंमें विचरनेवाले एक भयानक शेरके समान है'' अपेक्षाकृत अधिक सामान्य तौरसे रुद्रके लिये

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 उचित है । रुद्र प्रचंडतापूर्वक युद्ध करनेवाले मरुतोंका पिता है; पंचम मंडलके अंतिम सूक्तमें विष्णुकी स्तुति भी 'एवया-मरुत्'के नामसे की गयी है जिसका अभिप्राय है कि विष्णु वह स्रोत है जिसमेंसे मरुत् निकले हैं, वह जो कि वे हो जाते हैं और स्वयं भी वह उनकी सन्नद्ध शक्तियोंकी एकता तथा समग्रताके साथ तद्रूप है । रुद्र वह देव है जो विश्वमें आरोहण- क्रिया करता है, विष्णु भी वही देव है जो आरोहणकी शक्तियोंकी सहायता करता और उन्हे प्रोसाहन देता है ।

 

एक दृष्टिकोण यह था जो बहुत काल तक युरोपियन विद्वानों द्वारा प्रचारित किया जाता रहा कि पौराणिक देववंशावलियोंमे विष्णु तथा शिवकी महत्ता एक बादमें हुआ विकास है और वेदमें ये देव एक बिल्कुल क्षुद्र सी स्थिति रखते हैं तथा इन्द्र और अग्निकी अपेक्षा तुच्छ हैं । अनेक विद्वानोंका यह एक प्रचलित मत बन गया है कि 'शिव' एक बादका विचार था जो द्रविड़ोंसे लिया गया और यह इस बात को प्रकट करता है कि वैदिक धर्मपर देशीय संस्कतिने जिसपर कि इसने आक्रमण किया था आंशिक विजय प्राप्त कर लौ थी । इस प्रकारकी भूलोंका उठना अनिवार्य ही हैं, क्योंकि वैदिक विचारको पूर्णत: गलत रूपमें समझा गया है । इस गलत समझे जानेके लिये प्राचीन ब्राह्मण-ग्रंथीय कर्मकाण्ड जिम्मेवार है और इसे युरोपियन विद्वानोंने  वैदिक गाथाविज्ञानके गौण तथा बाह्य अंगपर अतिशय बल देकर केवल एक नया तथा और भी अधिक भ्रांतिपूर्ण रूप ही प्रदान किया है ।

 

वैदिक देवोंकी महत्ता इस बातसे नहीं मापी जानी चाहिये कि उन देवोंके लिये सूक्तोंकी संख्या कितनी है या ऋषियोंके विचारोंमें उनका आवाहन किस हदतक किया गया है, वरन् इससे मापी जानी चाहिये कि वे क्या व्यापार करते हैं । अग्नि और इन्द्र जिनके प्रति अधिकांश वैदिक सूक्त संबोधित किये गये हैं विष्णु तथा रुद्रकी अपेक्षा बड़े नहीं हैं, किन्तु उनकी प्रधानताका कारण केवल यह है कि आन्तरिक तथा बाह्य जगत्में वे जो व्यापार करते हैं वे सबसे अधिक क्रियाकर एवं प्रधान हैं तथा प्राचीन रहस्यवादियोंके आध्यात्मिक अनुशासनके लिये प्रत्यक्ष तौरसे फलोत्पादक हैं । मरुत् जो कि रुद्रके पुत्र हैं, अपने भयावह तथा शक्तिशाली पिताकी अपेक्षा अघिक ऊँचे देव नहीं हैं; किंतु उन्हें संबोधित किये गये सूक्त अनेकों हैं तथा अन्य देवोंके साथ जुड़कर तो वे और भी अघिक सातत्यके साथ वर्णित हुए हैं, क्योंकि जो व्यापार वे संपन्न करते हैं यह वैदिक अनुशासनमें एक सतत तथा तात्कालिक महत्त्वका है । दूसरी तरफ विष्णु, रुद्र, ब्रह्मणस्पति, जो बादके पौराणिक त्रैत विष्णु-शिव-बृह्याके वैदिक मूल हैं,

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 वैदिक कर्मकी आवश्यक अवस्थाओंका विधान करनेवाले हैं और वे स्वयं पीछे रहकर अपेक्षाकृत अधिक उपस्थित रहनेवाले तथा अधिक क्रियाशील देवोंके द्वारा, इस कर्ममें सहायता देते हैं, वे अपेक्षाकृत इसके कम समीप रहते हैं और देखनेमें ऐसा ही प्रतीत होता है कि वे इसकी दैनिक गतियोंमें कम नैरन्तर्यके साथ वास्ता रखते हैं ।

 

ब्रह्यणस्पति शब्द द्वारा रचना करनेवाला है; वह निश्चेतनाके समुद्रके अंधकारमेंसे प्रकाशको तथा दृश्य विश्वको पुकार लाता है और सचेतन सत्ताके व्यापारोंको ऊपरकी तरफ उनके उच्च लक्ष्यकी ओर गति दे देता है । ब्रह्मणस्पतिके इस रचनाशील रूपसे ही 'सृष्टिके रचयिता ब्रह्मा'का पश्चात्कालीन विचार उठा है ।

 

ब्रह्मणस्पतिकी रचनाओंकी ऊर्ध्वमुखी गतिके लिये शक्ति देता है रुद्र । वेदमें उसे 'द्यौका शक्तिशाली देव' यह नाम दिया गया है, परंतु वह अपना कार्य आरंभ करता है पृथ्वीपर और हमारे आरोहणके पांचों स्तरोंपर वह यज्ञको क्रियान्वित करता है । वह वह उग्र देव है जो सचेतन सत्ताकी ऊर्ध्वमुखी उन्नतिका नेतृत्व करता हैं; उसकी शक्ति सब बुराइयोंसे युद्ध करती है, पापीको और शत्रुको आहत कर देती है; न्यूनता तथा स्खलनके प्रति असहिष्णु यह रुद्र ही देवोंमें सबसे अधिक भयानक है, केवल इसीसे वैदिक ऋषि कोई वास्तविक भय मानते हैं । अग्नि, कुमार, जो पौराणिक 'स्कन्द'का मूल है, पृथ्वीपर इसी रुद्र-शक्तिका पुत्र है । मरुत्, वें प्राणशक्तियाँ जो बलप्रयोग द्वारा अपने लिये प्रकाशको रचती हैं, रुद्रके ही पुत्र हैं । अग्नि और मरुत् उस भयंकर संघर्षके नेता हैं जो रुद्रकी प्रथम पार्थिव धुंधली रचनासे शुरू होकर ऊपर विचारके द्युलोकों, प्रकाशमान लोकों, तक होता रहता है । किंतु यह प्रचण्ड और शक्तिशाली रुद्र जो बाह्य तथा आन्तरिक जीवनकी सब त्रुटिपूर्ण रचनाओंको तथा समुदायोंको तोड़ गिराता है साथ ही एक दयालु रूप भी रखता है । वह परम भिषक्, भैषज्यकर्त्ता है । विरोध किये जानेपर वह विनाश करता 'है; सहायता के लिये पुकारे जानेपर तथा प्रसादित किये जानेपर वह सब घावोंकोभर देता है तथा सब पापों और कष्टोंका निवारण कर देता है । युद्ध करनेवाली शक्ति उसीकी देन है, पर साथ ही चरम शांति और आह्लाद भी उसीकी देनें हैं । वैदिक रुद्रके इन रूपोंमें उस पौराणिक शिव-रुद्रके विकासके लिये आवश्यक सब आदिम सामग्रियाँ विद्यमान हैं जो पौराणिक शिव-रुद्र विनाशक तथा चिकित्सक है, मंगलकारी तथा भयानक है, लोकोंके अंदर क्रिया करनेवाली शक्तिका अधिपति तथा परम स्वाधीनता और शांतिका आनंद लेनेवाला योगी है ।

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 ब्रह्मणस्पतिके शब्दकी रचनाओंके लिये, रुद्रकी शक्तिकी क्रियाओंके लिये, विष्णु आवश्यक स्थिति-शील तत्त्वोंको प्रदान करता है--अर्थात् स्थानको, लोकोंकी व्यवस्थित गतियोंको, आरोहणके धरातलोंको, सर्वोपरि लक्ष्यको प्रदान करता है । उसने तीन चरण रखे हैं और उन तीन चरणोंसे बने स्थानमें उसने सब लोकोंको स्थगिपत कर दिया है । इन लोकोंमें वह सर्वव्यापी देव निवास करता है और देवताओंकी क्रिया तथा गतियोंको कम या अघिक यथायोग्य स्थान प्रदान करता है । जब इन्द्रको वृत्रका वध करना होता है तब वह इस महासंग्राममें अपने मित्र और साथी1 विष्णुकी ही सर्वप्रथम स्तुति करता है कि ''ओ विष्णु ! तू अपनी गतिकी पूर्ण विशालताके साथ पग उठा''2, और उस विशालतामें वह वृत्रको जो सीमामें बांधनेवाला और आच्छादित करनेवाला है, विनष्ट कर देता हैं । विष्णुका परम पद या सर्वोच्च धाम आनंद और प्रकाशका त्रिगुणित लोक है, प्रियं पदम्, जिसे ज्ञानी मनुष्य द्यौ में फैला हुआ देखते हैं, मानो कि वह दर्शन ( Vision ) की चमकीली आँख हों3; यही विष्णुका सर्वोच्च स्थान है जो वैदिक यात्राका लक्ष्य है । यहाँ फिर वैदिक विष्णु पौराणिक नारायण अर्थात् परिपालक तथा प्रेमके अधिपतिका पूर्ववर्ती है तथा उसका पर्याप्त मूलस्रोत है ।

 

अवश्य ही वेदमें कथित विष्णुका आधारभूत विचार उस पौराणिक व्यवस्थाको स्वीकार नहीं करता जो वहाँ उच्च त्रिमूर्त्ति तथा उससे छोटे देवोंमें की गयी है । वैदिक ऋषियोंकी दृष्टिमें केवल एक विश्वात्मक देव था जिसके विष्णु, रुद्र, ब्रह्मणस्पति, अग्नि, इन्द्र, वायु, मित्र, वरुण-सब एकसमान रूप तथा विराट् अंग थे । उनमेंसे प्रत्येक अपने आपमें संपूर्ण देव है तथा अन्य सब देवोंको अपने अंदर सम्मिलित किये है । उपनिषदोंमें जाकर इस सबसे उच्च और एक देवके विचारका पूर्ण उद्भव हों जाना जिसे वेदकी ऋचाओमें अस्पष्ट तथा अव्याख्यात छोड दिया गया था और .यहाँ तक कि जिसे कहीं कहीं नपुंसक लिंग मे 'तत्' (वह) या 'एकात्मक सत्ता' (एकं सत्) कहकर छोड़ दिया गया था, और दूसरी तरफ अन्य देवों की कर्मकांडी सीमितता तथा उनके मानवीय या व्यक्तिगत रूपोंका क्रमश: निर्धारित हो जाना (जो विकसित होते हुए गाथाविज्ञानके दबावके अनुसार

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1. इन्द्रस्य युज्य: सखा । 1. 22.19

2. अथाद्रवीद् वृत्रमिन्द्रो हनिष्यन् त्सखे विष्णो वितरं विक्रमस्य । 4.18.11

3. तद् विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय : । दिवीव चक्षुराततम् ।। 1 .22.20

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 हुआ) -इन दो कारणोंसे अंतमें जाकर हिन्दु देववंशावलीकी पौराणिक रचनामें ये देव पदच्युत हो गये तथा अपेक्षया कम प्रयोगमें आये हुए तथा अधिक सामान्यभूत नामों व रूपों-बह्मा, विष्णु और रुद्रको सिंहासन प्राप्त हो गया ।

 

औचथ्य दीर्घतमस्के सर्वव्यापी विष्णुके प्रति कहे गये इस सूक्तमें विष्णुके अपने अद्भुत कार्यका, विष्णुके तीन पदोंकी महत्ताका गान किया गया है । हमें अपने मनसे उन विचारोंको निकाल देना चाहिये जो बाद के गाथाशास्त्रके अनुसार बने हैं । हमें यहाँ वामन विष्णु, दैत्य बलि और उन दिव्य तीन कदमोंसे कुछ वास्ता नहीं जिन्होंने पृथिवी, द्यौ तथा पातालके प्रकाशरहित अधोवर्ती लोकोंको व्याप लिया था । वेदमें विष्णुके तीन कदमोंको दीर्घतमस्ने स्पष्टतया इस रूपमें व्याख्यात किया है कि वे पृथिवी, द्यौ तथा उच्च त्रिगुणित तत्त्व, त्रिधातु, हैं । द्यौसे परे स्थित या इसके सर्वोच्च धरातलके रूपमें इसके ऊपर समारोपित, नाकस्य पृष्ठे, सर्वोच्च त्रिगुणित तत्त्व ही इस सर्वव्यापी देवका परम पद (चरण) या सर्वोच्च धाम है ।

 

विष्णु विस्तृत गतिवाला (उरुक्रम:) देव है । यह वह है जो चारों तरफ गया हुआ है--जैसा कि ईश उपनिषद्के शब्दोंमें प्रकट किया गया है, स पर्यगात्,-उसने अपनेको तीन रूपोंमें, द्रष्टा, विचारक और रचयिताके रूपमें पराचेतन आनंदमें, मनके द्यौमें, भौतिक चेतनाकी पृथिवीमें विस्तृत कर रखा है, त्रेधा विचक्रमाण: । उन तीन चरणोंमें उसने पार्थिव लोकोंको माप लिया है, उसने उन्हें उनके संपूर्ण विस्तारके साथ रच दिया है; क्योंकि वैदिक विचारमें भौतिक लोक जिसमें हम निवास करते हैं केवल अनेक पदोंमेंसे एक है. जो अपनेसे परेके प्राणमय तथा मनोमय लोकोंको ले जाता है और उन्हें थामता है । उन चरणोंमें यह पृथिवी तथा मध्यलोकमें-पृथिवी अर्थात् भौतिक लोकमें, मध्यलोक अर्थात् क्रियाशील जीवनतत्त्वके अधिपति वायुके प्राणमय लोकोंमें-त्रिगुणित द्यौको तथा इसके तीन जगमगाते हुए ऊर्ध्वशिखरोंको, त्रीणि रोचना, थामता है । इन द्युलोकोंको ऋषिने पूर्णता-साधक उच्चतर पदके रूपमें (उत्तर सधस्थं) वर्णित किया है । पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ सचेतन सत्ताकी उत्तरोत्तर प्रगतिशील आत्म-परिपूर्णता प्राप्त करनेके त्रिविध स्थान (त्रिषधस्थ) हैं, पृथिवी है निम्नस्थान, प्राणमय लोक है मध्यवर्ती, द्यौ उच्च स्थान । थे सब विष्णुकी त्रिविध गतिमें समाविष्ट हैं । (देखो, मंत्र पहला) ।

 

पर इससे आगे भी है; एक वह लोक भी है जहाँ आत्म-परिपूर्णता सिद्ध हो जाती है, जो विष्णुका सर्वोच्च पद (चरण) है । रस दूसरी

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 ऋचामें ऋषि उसे केवल 'तद्' (उसको) कहकर वर्णित करता है; ''उस'' को विष्णु और आगे गति करता हुआ अपनी दिव्य शक्तिके द्वारा अपने तृतीय पगमें प्रस्तुत करता है या दृढ़तया स्थापित कर देता हैं, प्र-स्तवते । इसके बाद विष्णुका वर्णन ऐसी भाषामें किया गया है जो भयावह रुद्रके साथ उसको वास्तविक तद्रूपताको निर्दिष्ट करती है, लोकोंका भीषण और खतरनाक शेर जो इस क्रमविकासमें पशुओंके अधिपति, पशुपतिके रूपमें क्रिया आरंभ करता है, और ऊपर की तरफ सत्ताके पहाड़पर, जहाँ वह निवास करता है, गति करता चलता है, अधिकाधिक कठिन और दुर्गम स्थनोंके बीचसे विचरता हुआ चलता जाता है जब तक कि वह ऊर्ध्वशिखरोंपर नहीं जा खड़ा होता । इस प्रकार विष्णुकी इन तीन विशाल गतियोंमें सब पांचों लोक और उनके प्राणी अपना निवास प्राप्त किये हुए हैं । पृथिवी, द्यौ तथा वह आनंदमय लोक (तद्) ये तीन पद हैं । पृथिवी और द्यौ  के बीचमें है अन्तरिक्ष अर्थात् प्राणमय लोक, शाब्दिक अर्थ लें तो ''मध्यवर्ती निवास" । द्यौ तथा आनंदमय लोकके बीचमें एक दूसरा विस्तृत अन्तरिक्ष या ''मध्यवर्ती निवास" है, महर्लोक, वस्तुओंके पराचेतनात्मक सत्यका लोक । (देखो मंत्र दूसरा) ।

 

मनुष्यकी शक्तिको और मनुष्यके विचारको-शक्तिको जो शक्तिशाली रुद्रसे आती है और विचारको जो ब्रह्मणस्पति, शब्दके रचनाशील अधिपतिसे आता है--इस महती यात्रामें इस विष्णुके लिये या इस विष्णुके प्रति आगे- आगे जाना चाहिये । यह विष्णु लक्ष्यस्थानपर, ऊर्ध्वशिखरपर, पहाड़की अंतिम चोटीपर, खड़ा हुआ है (गिरिक्षित्) । उसीकी यह विशाल विश्वव्यापी गति है; वह विश्वका बैल है जो गतिकी सब शक्तियोंका और विचारके सब पशु-यूथोंका आनंद लेता तथा उन्हें फलप्रद बना देता है । यह दूर तक फैला विस्तृत स्थान जो हमारी आत्मपरिपूर्णता साधनेके लोकके रूपमें, महान् यज्ञकी त्रिगुणित वेदिके रूपमें, हमारे सामने प्रकट होता है उस सर्वशक्तिशाली असीमके केवल तीन ही चरणोंके द्वारा इस प्रकार मापा गया है, इस प्रकार रचित हो गया है । (देखो, मंत्र तीसरा)

 

ये तीनों चरण सत्ताके आनंदके मधुरससे परिपूर्ण हैं । उन सबको यह विष्णु अपनी सत्ताके दिव्य आह्लादसे भर देता है । उसके द्वारा वे नित्य रूपसे धृत हो जाते हैं और वे क्षीण या विनष्ट नहीं होते किंतु अपनी स्वाभाविक गतिकी आत्म-समस्वरतामें सदा ही अपनी विशाल तथा असीमित सत्ताके अक्षय आनंदको, अविनश्वर मदको, प्राप्त किये रहते हैं । विष्णु उन्हे अक्षय रूपमें धृत कर देता है, अविनाश्य रूपभे रक्षित कर देता

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 है । वह एक है, वही अकेला एक-सत्ता-धारी देव है, और यह अपनी सत्ताके अंदर उस त्रिविध दिव्य तत्त्व (त्रिधातु) को धारण किये है जिसे हम आनंदमय लोकमें, पृथिवीमें जहाँ कि हमारा आधार है तथा द्यौमें भी जिसे हम अपने अंदर विद्यमान मनोमय पुरुषके द्वारा स्पर्श करते हैं, अधिगत करते हैं । पांचों लोकोंको वह धारण किये है । (देखो, मंत्र चौथा) । त्रिधातु, त्रिविध तत्त्व या सत्ताकी त्रिविध सामग्री, वेदांतका 'सत्-चित्-आनंद' है; वेदकी सामान्य भाषामें यह वसु अर्थात् सत्तत्व, उर्ज् अर्थात् हमारी सत्ताका प्रचुर बल, और प्रियम् या मयअर्थात् हमारी सत्ताके वास्तविक तत्त्वके अंदर विद्यमान आनंद और प्रेम है । जो कुछ भी अस्तित्वमें है वह सब इन तीन वस्तुओंसे ही रचा गया है और इनकी पूर्णता हम तब प्राप्त करते हैं जब हम अपनी यात्राके लक्ष्यपर पहुँच जाते हैं ।

 

वह लक्ष्य है आनंद जो विष्णुके तीन पदोंमेंसे अंतिम (परम) है । ऋषि अनिश्चित शब्द ''तत्त्'' को फिरसे लेता है जिसके द्वारा पहले उसने अस्पष्ट रूपमें इसका निर्देश किया था; यह शब्द उस आनंदको प्रकट करता है जो विष्णुकी गतिका लक्ष्य है । यह आनंद ही मनुष्यके लिये उसके आरोहणमें आनेवाला वह लोक है जिसमें वह दिव्य सुखका स्वाद लेता है, असीम चेतनाकी पूर्ण शक्तिसे युक्त हो जाता है, अपनी असीम सत्ताको अनुभव कर लेता है । वहां सत्ताके मधुरसका वह उच्च-स्थित स्रोत है जिससे विष्णुके तीन पद परिपूर्ण हैं । वहाँ उस मधुरताके रसके पूर्ण आनंदमें देवत्वकी इच्छुक आत्माऐं निवास करती हैं । वहाँ उस परम (अंतिम) पदमें, विशाल गतिवाले विष्णुके सर्वोच्च धाममें शहदके रसका झरना है, दिव्य मधुरताका स्रोत हैं; क्योंकि वहाँ जो निवास करता है वह परम देव है, उसकी अभीप्सा करनेवाली आत्माओंका पूर्ण मित्र और प्रेमी है, अर्थात् वहाँ विष्णुकी स्थिर और पूर्ण वस्तुसत्ता है जिसके प्रति विस्तृत गतिवाला विश्वस्य विष्णु देव आरोहण करता है । (देखो, मंत्र पांचवां)

 

ये दो हैं, गति करनेवाला विष्णु यहाँपर, सदा-स्थिर आनंदास्वादक विष्णु देव वहांपर; और इस युगलके उच्च निवासस्थानोंको ही, सच्चिदानंदके त्रिगुणित लोक को ही हम इस लंबी यात्राके, इस महान् ऊर्ध्वमुखी गतिके, लक्ष्यके तौरपर पहुँचना चाहते हैं । उधरको सचेतन विचारकी, सचेतन शक्तिकी बहुतसे सींगोंवाली गौएँ गति कर रही हैं--वह उनका लक्ष्य है, वह उनका निवासस्थान है । वहां उन लोकोंमें इस विशाल गतिवाले बैलके, उन समस्त बहुशृगी गौओंके अधिपति और नेताके विराट् देव, हमारी

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 आत्माओंके प्रेमी और मित्र, परात्पर सत्ता तथा परात्पर आनंदके अधिपति सर्वव्यापी विष्णुके परमपद, सर्वोच्च धामकी विशाल, परिपूर्ण, असीम जगमगाहट रहती है जो यहाँ हमारे ऊपर आकर चमकती है ।

 (देखो, मंत्र छठा)

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